Saturday, 24 June 2017

चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिए 
इश्क़ के इस सफर ने तो मुझको निढाल कर दिए

मिलते हुए दिलों के बीच और था फैसला कोई 
उसने मगर बिछड़ते वक़्त और एक सवाल कर दिया
ऐ मेरी गुल ज़मीन तुझे चाहए थी इक किताब 
एहले-ऐ-किताब ने मगर क्या तेरा हाल कर दिया
मुमकिन फैसलों में इक हिज्र का फैसला भी था 
हम ने तो एक बात की उसने कमाल कर दिया
मेरे लबों पे मोहर थी , पर मेरे शीशा रू ने तो 
शहर के शहर को मेरा वाक़िफ़ -ऐ -हाल कर दिए
चेहरा और नाम एक साथ आज न याद आ सके 
वक़्त ने किस शबीह को ख्वाब -ओ-ख्याल कर दिया
मुद्दतों बाद उसने आज मुझसे कोई गिला किया 
मनसब -ऐ -दिलबरी पे क्या मुझको बहाल कर दिए

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